अब प्रस्तुत है एक कविता,
देते दर्द वही|
व्यर्थ विचारों में
भटका मन
और हुआ सिरदर्द|
काट रहे जड़
डाल रहे हैं
ला उसमें मट्ठा
अपने हुए पराए
क्यों करते हो
मन खट्टा
देते दर्द वही
जो अपने
कहलाते हमदर्द||
बड़की के,
रिश्ते में करके
जिसने दारूण छेद
खड़ा बीच में
वह शुभ चिंतक
जता रहा है खेद
पत्थर दिल
बन कर बहुरुपिया
भरता आहें सर्द||
कुंभलाएँ कपोल
पंखुडियाँ
जैसे पेड़ों की
चुभती पग में
कील सरीखी
छाती मेडों की
जीवन के
मधुबन में छाई
ज्यों अंधड़ की गर्द||