सबसे उँचा स्वयम् को, वृक्ष समझता ताड़,
इतराता लगता कभी, देखा नहीं पहाड़.
मँहगाई को देख कर, हुआ टमाटर लाल,
दस से बत्तिस हो गया, मारी एक उछाल.
न्यायालय में देख ली, देर और अंधेर,
मुक्त हुआ आरोप से,मोनिंदर पंधेर.
नही समझ कुछ आ रहा, सोच रहे जसवंत,
इस प्रकार होगा कभी, जस का उनके अंत.
बस जिन्ना के जिन्न पर,होता रहे बवाल,
इससे चलती रहेगी, उनकी रोटी दाल.
न तो भक्ति का भाव है, और न शिष्टाचार,
नशा ड्रग्स का झूमती, यू. पी. की सरकार.
जन जन के जो हृदय में, राज रहें हैं राम,
आज छावनी बन गया, उनका पावन धाम.
दारू पीकर ज्यों कभी, कभी चढ़ा कर भंग,
बाल ठाकरे की तरह, मौसम बदले रंग.
Sunday, February 14, 2010
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बिल्कुल सटीक... मौसमी दोहे...
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