जो स्वभाव से गाय हैं,
शोषण उनका हो रहा,
वहीं आज असहाय हैं.
बाहर से खामोश हैं,
झलक रहा तूफान सा,
भीतर उसके रोष हैं.
मिला जो कि वो कम नहीं,
जो न मिला उसका हमें,
किंचित कोई गम नहीं.
मानव दानव एक हैं.
नैतिकता का फ़र्क बस,
लगते सभी अनेक हैं.
रोम रोम में राम जो
बसे, छावनी बन गया,
उनका पावन धाम जो.
भूखे भी होते भजन,
सजनी को क्या चाहिए,
अगर साथ उसके सजन.
यूँ तो हम आज़ाद हैं,
चख कर देखा तो लगा,
खट्टे-मीठे स्वाद हैं.
राजनीति के खेल में,
सज्जन दुर्जन हो गये,
जाएँगे कल जेल में.
Saturday, March 13, 2010
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बहुत ही सुन्दर रचना . पढ़कर तबियत खुश हो गई .... आभार .
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