इसके बाद प्रस्तुत है एक छोटी सी रचना
नहीं किसी से डरती चींटी
ठान लिया जो करती चींटी
दाने एक-एक चुन-चुन कर,
खुद अपना घर भरती चींटी
अपने वादे की है पक्की
करके नही मुकरती चींटी
उँची-नीची पगडंडी पर
चलती कभी न गिरती चींटी
खुद से दूना भार उठाकर
चढ़ती कभी उतरती चींटी
जीती है अपनों के खातिर
अपनों पर ही मरती चींटी
अनुशासन में रहकर "बाबा"
संभल-संभल पग धरती चींटी