भोला था मन का सच्चा था,
प्यारा था जब तक बच्चा था
करता था वो बातें सच्ची,
जबतक अकल से वो कच्चा था
बड़ा हुआ करता नादानी ,
गढ़ता अपनी राम कहानी
किये नीर के टुकड़े-टुकड़े,
देख मुझे होती हैरानी
कहता ये केदार का पानी,
लाया 'गया' बिहार का पानी
ये जमजम का यह संगम का,
निर्मल हरिद्वार का पानी
जिसको बड़े जतन से पाला,
बदल रहा पल पल में पाला
आंगन में दिवार उठा दी,
कैसा पड़ा गधे से पाला
बंद भला कब तक ताले में,
रहा कौन किसके पाले में
तन में रक्त एक सा सबके,
भेद न कुछ गोरे काले में
वैभव पाकर मत इतराओ,
दीन-हीन को नहीं सताओ
जिओ और जीने दो सबको,
मिलकर सारे ख़ुशी मनाओ
नहीं साथ मे कुछ भी जाता ,
सब कुछ यही पड़ा रह जाता
वही सुखी रहता जीवन में,
जोकि दुसरो के काम आता
Saturday, June 5, 2010
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कानपुर वाले बाबा पहचानो मुझे
ReplyDeleteमै कौन
कब मिले थे पिछली बार
साथ खाई थी पूरी सब्जी।
प्रेरणाप्रद रचना...
ReplyDeletebahut sundar....Baba jee :)
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