Sunday, March 28, 2010

देवनागरी लिपि की महिमा.

२१ मार्च को शिलांग(मेघालय) में आयोजित ३२वें अखिल भारतीय नागरी लिपि सम्मेलन में प्रस्तुत, देवनागरी लिपि की महिमा समेटे एक कविता.


भाषा बोली के चुन-चुन कर,
तिनके-तिनके, रोड़ा-रोड़ा|
एक नागरी लिपि है, जिसने-
एक सूत्र में सब को जोड़ा||

बंगाली हो याकि बिहारी,
राजस्थानी या मद्रासी,
गुजराती कन्नड़ कश्मीरी,
झारखंड अरुणांचलवासी,

गौहाटी हो या चौपाटी,
चंडीगढ़ हो या अल्मोड़ा|
एक नागरी लिपि है, जिसने-
एक सूत्र में सब को जोड़ा||

कुछ सौदागर जो नफ़रत की
बिछा रहे पग-पग पर गोटी,
भाषाओं की, क्षेत्रवाद के-
सेंक रहे चूल्‍हे पर रोटी|

छेड़ रहे हैं उसे, खड़ा जो-
छुट्टा बिन लगाम का घोड़ा|
एक नागरी लिपि है, जिसने-
एक सूत्र में सब को जोड़ा||

सरिता जैसा हृदय, समेटे
बहती लेकर नाली-नाले,
सबके लिए खुले दरवाजे,
लटके कहीं न ताली-ताले,

ज्यों गुलाल लेकर गालों पर
मला सभी के थोड़ा-थोड़ा|
एक नागरी लिपि है, जिसने-
एक सूत्र में सब को जोड़ा||

Saturday, March 13, 2010

काव्य की एक नई विधा जनक छ्न्द

जो स्वभाव से गाय हैं,
शोषण उनका हो रहा,
वहीं आज असहाय हैं.

बाहर से खामोश हैं,
झलक रहा तूफान सा,
भीतर उसके रोष हैं.


मिला जो कि वो कम नहीं,
जो न मिला उसका हमें,
किंचित कोई गम नहीं.

मानव दानव एक हैं.
नैतिकता का फ़र्क बस,
लगते सभी अनेक हैं.

रोम रोम में राम जो
बसे, छावनी बन गया,
उनका पावन धाम जो.

भूखे भी होते भजन,
सजनी को क्या चाहिए,
अगर साथ उसके सजन.

यूँ तो हम आज़ाद हैं,
चख कर देखा तो लगा,
खट्टे-मीठे स्वाद हैं.

राजनीति के खेल में,
सज्जन दुर्जन हो गये,
जाएँगे कल जेल में.