Sunday, June 27, 2010

कैम्पटी मंसूरी में आयोजित राष्ट्रीय बाल-साहित्य सम्मेलन की कुछ झलकियाँ.

सिद्ध रिसर्च सेंटर एवं बाल प्रहरी के संयुक्त तत्वावधान में कैम्पटी मसूरी में आयोजित पांचवें बाल - साहित्य सम्मेलन के अंतर्गत संपन्न राष्ट्रीय बाल सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि बाबा कानपुरी को पंडित सुमित्रा नंदन साहित्य सम्मान से नवाजा गया समारोह अध्यक्ष श्री पवन गुप्ता वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर रामनिवास 'मानव',कार्यक्रम के संयोजक एवं बाल प्रहरी के संपादक उदय किरोला ने शाल ओढाकार,सम्मान पत्र एवं स्मृति चिन्ह प्रदानकर सम्मानित किया | इस अवसर पर डॉक्टर शिव नाथ राय, मुंबई महाराष्ट्र से पधारी शायरा डॉक्टर सरताज बानो,दिल्ली से रवि शर्मा , अल्मोड़ा से पवन शर्मा ,ग़ाज़ियाबाद से डॉक्टर मधु भारती ,बहराइच से डॉक्टर अशोक गुलशन को शैलेश मटियानी साहित्य सम्मान से नवाजा गया | इस कार्यक्रम में राजस्थान से डॉक्टर भैरोलाल गर्ग ,उज्जैन से रफीक नागौरी ,मुजफ्फ़र नगर से डॉ. कीर्ति बर्धन ,नोएडा से रामगोपाल वर्मा, डॉक्टर नागेश पाण्डेय ,डॉक्टर ब्रज नंदन वर्मा ,नेहा वैद्य सहित बिहार ,बंगाल , गुजरात , हरियाणा , हिमांचल प्रदेश आदि से प्रतिष्ठित कवि-लेखकों ने भाग लिया |







अब प्रस्तुत है एक कविता,


देते दर्द वही|

व्यर्थ विचारों में
भटका मन
और हुआ सिरदर्द|

काट रहे जड़
डाल रहे हैं
ला उसमें मट्ठा
अपने हुए पराए
क्यों करते हो
मन खट्टा

देते दर्द वही
जो अपने
कहलाते हमदर्द||

बड़की के,
रिश्ते में करके
जिसने दारूण छेद
खड़ा बीच में
वह शुभ चिंतक
जता रहा है खेद

पत्थर दिल
बन कर बहुरुपिया
भरता आहें सर्द||

कुंभलाएँ कपोल
पंखुडियाँ
जैसे पेड़ों की
चुभती पग में
कील सरीखी
छाती मेडों की

जीवन के
मधुबन में छाई
ज्यों अंधड़ की गर्द||

कैम्पटी मंसूरी में आयोजित राष्ट्रीय बाल-साहित्य सम्मेलन की कुछ झलकियाँ.

Saturday, June 19, 2010

दो आदर, सम्मान

शर्मिंदा शर्मिंदगी / पटरी से नीचे यथा / उतर गयी हो रेल /
मन में है सदभाव भी / मंहगाई की मार से / है कुछ -कुछ टकराव भी /
घर आए मेहमान को / उसे समझ कर देवता / दो आदर, सम्मान दो /
घर आए मेहमान का / करता जो स्वागत नहीं / बच्चा है शैतान का /
ये बजती शहनाईयां /सुनकर लगता डस रहीं /नागिन बन तनहाइयाँ /
धुंध भरी यह धूल है /समझ रहे बदल उसे / यह तो तेरी भूल है /
कहने को जनतंत्र है /जनता शोषित तंत्र भी /उसके संग षण्यंत्र है /
नैतिकता इंसानियत /शिशक रही,हो नग्न अब /नाच रही हैवानियत /

Saturday, June 5, 2010

वैभव पाकर मत इतराओ

भोला था मन का सच्चा था,
प्यारा था जब तक बच्चा था
करता था वो बातें सच्ची,
जबतक अकल से वो कच्चा था

बड़ा हुआ करता नादानी ,
गढ़ता अपनी राम कहानी
किये नीर के टुकड़े-टुकड़े,
देख मुझे होती हैरानी

कहता ये केदार का पानी,
लाया 'गया' बिहार का पानी
ये जमजम का यह संगम का,
निर्मल हरिद्वार का पानी

जिसको बड़े जतन से पाला,
बदल रहा पल पल में पाला
आंगन में दिवार उठा दी,
कैसा पड़ा गधे से पाला


बंद भला कब तक ताले में,
रहा कौन किसके पाले में
तन में रक्त एक सा सबके,
भेद न कुछ गोरे काले में


वैभव पाकर मत इतराओ,
दीन-हीन को नहीं सताओ
जिओ और जीने दो सबको,
मिलकर सारे ख़ुशी मनाओ


नहीं साथ मे कुछ भी जाता ,
सब कुछ यही पड़ा रह जाता
वही सुखी रहता जीवन में,
जोकि दुसरो के काम आता

वैभव पाकर मत इतराओ|


भोला था मन का सच्चा था,
प्यारा था जब तक बच्चा था|
करता था वो बातें सच्ची,
जब तक अक़ल से कच्चा था|

बड़ा हुआ करता नादानी,
गढ़ता अपनी राम कहानी|
किये नीर के टुकड़े-टुकड़े ,
देख मुझे होती हैरानी|

कहता ये केदार का पानी,
लाया गया बिहार का पानी|
ये जम-जम का, यह संगम का,
निर्मल हरिद्वार का पानी |

जिसको बड़े जातां से पला,
बदल रहा पल पल में पला|
आंगन में दिवार उठा दी,
कैसा पड़ा गधे से पला|

बंद भला कब तक ताले में,
रहा कौन किसके पाले में|
तन में रक्त एक सा सबके,
भेद कुछ गोरे काले में|

वैभव पाकर मत इतराओ,
दीन हीन को नहीं सताओ|
जिओ और जीने दो सबको,
मिलकर सरे ख़ुशी मनाओ|


नहीं साथ अमे कुछ भी जाता,
सब कुछ यही पड़ा रह जाता|
वही सुखी रहता जीवन में,
जो की दुसरो के काम आता|

भोला था मन का सच्चा था
प्यारा था जब तक बच्चा था
करता था वो बातें सच्ची
जब तक वो अकाल से कच्चा था
बड़ा हुआ करता नादानी
गढ़ता अपनी राम कहानी
किये नीर के टुकड़े-टुकड़े
देख मुझे होती हैरानी
कहता ये केदार का पानी
लाया गया बिहार का पानी
ये जम-जम का यह संगम का
निर्मल हरिद्वार का पानी
जिसको बड़े जातां से पला
बदल रहा पल पल में पला
आंगन में दिवार उठा दी
कैसा पड़ा गधे से पला
बंद भला कब तक ताले में
रहा कौन किसके पाले में
तन में रक्त एक सा सबके
भेद न कुछ गोरे काले में
वैभव पाकर मत इतराओ
दीन हीन को नहीं सताओ
जिओ और जीने दो सबको
मिलकर सरे ख़ुशी मनाओ
नहीं साथ अमे कुछ भी जाता
सब कुछ यही पड़ा रह जाता
वही सुखी रहता जीवन में
जो की दुसरो के काम आता

Saturday, May 15, 2010

प्रतिष्ठित कवि दीपचंद सुथार की काव्य यात्रा के स्वर्ण जयंती समारोह की कुछ झलकियाँ

भक्त शिरोमणि मीराबाई की जन्मस्थली मेड़ता सिटी जिला नागौर राजस्थान में वरिष्ठ कवि दीपचंद सुथार की काव्य यात्रा के स्वर्ण जयंती समारोह की कुछ झलकियाँ जिसकी अध्यक्षता की नागौर के जिलाधिकारी डॉ. समित शर्मा, मुख्यअतिथि थे डॉ. परमानंद पांचाल(पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानीजैल सिंह के विशेष सलाहकार) एवं विशिष्टअतिथि के रूप में मैं(बाबा कानपुरी) और स्वामी ओमानंद सरस्वती













इसके बाद प्रस्तुत है एक छोटी सी रचना

नहीं किसी से डरती चींटी
ठान लिया जो करती चींटी

दाने एक-एक चुन-चुन कर,
खुद अपना घर भरती चींटी

अपने वादे की है पक्की
करके नही मुकरती चींटी

उँची-नीची पगडंडी पर
चलती कभी न गिरती चींटी

खुद से दूना भार उठाकर
चढ़ती कभी उतरती चींटी

जीती है अपनों के खातिर
अपनों पर ही मरती चींटी

अनुशासन में रहकर "बाबा"
संभल-संभल पग धरती चींटी

Sunday, March 28, 2010

देवनागरी लिपि की महिमा.

२१ मार्च को शिलांग(मेघालय) में आयोजित ३२वें अखिल भारतीय नागरी लिपि सम्मेलन में प्रस्तुत, देवनागरी लिपि की महिमा समेटे एक कविता.


भाषा बोली के चुन-चुन कर,
तिनके-तिनके, रोड़ा-रोड़ा|
एक नागरी लिपि है, जिसने-
एक सूत्र में सब को जोड़ा||

बंगाली हो याकि बिहारी,
राजस्थानी या मद्रासी,
गुजराती कन्नड़ कश्मीरी,
झारखंड अरुणांचलवासी,

गौहाटी हो या चौपाटी,
चंडीगढ़ हो या अल्मोड़ा|
एक नागरी लिपि है, जिसने-
एक सूत्र में सब को जोड़ा||

कुछ सौदागर जो नफ़रत की
बिछा रहे पग-पग पर गोटी,
भाषाओं की, क्षेत्रवाद के-
सेंक रहे चूल्‍हे पर रोटी|

छेड़ रहे हैं उसे, खड़ा जो-
छुट्टा बिन लगाम का घोड़ा|
एक नागरी लिपि है, जिसने-
एक सूत्र में सब को जोड़ा||

सरिता जैसा हृदय, समेटे
बहती लेकर नाली-नाले,
सबके लिए खुले दरवाजे,
लटके कहीं न ताली-ताले,

ज्यों गुलाल लेकर गालों पर
मला सभी के थोड़ा-थोड़ा|
एक नागरी लिपि है, जिसने-
एक सूत्र में सब को जोड़ा||

Saturday, March 13, 2010

काव्य की एक नई विधा जनक छ्न्द

जो स्वभाव से गाय हैं,
शोषण उनका हो रहा,
वहीं आज असहाय हैं.

बाहर से खामोश हैं,
झलक रहा तूफान सा,
भीतर उसके रोष हैं.


मिला जो कि वो कम नहीं,
जो न मिला उसका हमें,
किंचित कोई गम नहीं.

मानव दानव एक हैं.
नैतिकता का फ़र्क बस,
लगते सभी अनेक हैं.

रोम रोम में राम जो
बसे, छावनी बन गया,
उनका पावन धाम जो.

भूखे भी होते भजन,
सजनी को क्या चाहिए,
अगर साथ उसके सजन.

यूँ तो हम आज़ाद हैं,
चख कर देखा तो लगा,
खट्टे-मीठे स्वाद हैं.

राजनीति के खेल में,
सज्जन दुर्जन हो गये,
जाएँगे कल जेल में.

Sunday, February 14, 2010

मौसमी दोहे

सबसे उँचा स्वयम् को, वृक्ष समझता ताड़,
इतराता लगता कभी, देखा नहीं पहाड़.

मँहगाई को देख कर, हुआ टमाटर लाल,
दस से बत्तिस हो गया, मारी एक उछाल.

न्यायालय में देख ली, देर और अंधेर,
मुक्त हुआ आरोप से,मोनिंदर पंधेर.

नही समझ कुछ आ रहा, सोच रहे जसवंत,
इस प्रकार होगा कभी, जस का उनके अंत.

बस जिन्ना के जिन्न पर,होता रहे बवाल,
इससे चलती रहेगी, उनकी रोटी दाल.

न तो भक्ति का भाव है, और न शिष्टाचार,
नशा ड्रग्स का झूमती, यू. पी. की सरकार.

जन जन के जो हृदय में, राज रहें हैं राम,
आज छावनी बन गया, उनका पावन धाम.

दारू पीकर ज्यों कभी, कभी चढ़ा कर भंग,
बाल ठाकरे की तरह, मौसम बदले रंग.

Tuesday, January 26, 2010

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

बाबा कानपुरी की ओर से सभी भारतवासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.....जय हिन्द जय भारत